श्रीकृष्ण दौड़े चले आए
अर्जुन ने अपने-आपको श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था| अर्जुन होता हुआ भी, नहीं था, इसलिए कि उसने जो कुछ किया, अर्जुन के रूप में नहीं, श्रीकृष्ण के सेवक के रूप में किया| सेवक की चिंता स्वामी की चिंता बन जाती है|
अर्जुन का युद्ध अपने ही पुत्र बब्रुवाहन के साथ हो गया, जिसने अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया... और कृष्ण दौड़े चले आए... उनके प्रिय सखा और भक्त के प्राण जो संकट में पड़ गए थे|
अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बब्रुवाहन ने पकड़ लिया और घोड़े की देखभाल की जिम्मेदारी अर्जुन पर थी| बब्रुवाहन ने अपनी मां चित्रांगदा को वचन दिया था कि मैं अर्जुन को युद्ध में परास्त करूंगा, क्योंकि अर्जुन चित्रांगदा से विवाह करने के बाद लौटकर नहीं आया था|
और इसी बीच चित्रांगदा ने बब्रुवाहन को जन्म दिया था| चित्रांगदा अर्जुन से नाराज थी और उसने अपने पुत्र को यह तो कह दिया था कि तुमने अर्जुन को परास्त करना है लेकिन यह नहीं बताया था कि अर्जुन ही तुम्हारा पिता है... और बब्रुवाहन मन में अर्जुन को परास्त करने का संकल्प लिए ही बड़ा हुआ| शस्त्र विद्या सीखी, कामाख्या देवी से दिव्य बाण भी प्राप्त किया, अर्जुन के वध के लिए|
और अब बब्रुवाहन ने अश्वमेध के अश्व को पकड़ लिया तो अर्जुन से युद्ध अश्वयंभावी हो गया| भीम को बब्रुवाहन ने मूर्छित कर दिया और फिर अर्जुन और बब्रुवाहन का भीषण संग्राम हुआ| अर्जुन को परास्त कर पाना जब असंभव लगा तो बब्रुवाहन ने कामाख्या देवी से प्राप्त हुए दिव्य बाण का उपयोग कर अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया|
श्रीकृष्ण को पता था कि क्या होने वाला है, और जो कृष्ण को पता था, वही हो गया| वे द्वारिका से भागे-भागे चले आए| दाऊ को कह दिया, "देर हो गई, तो बहुत देर हो जाएगी, जा रहा हूं|"
कुंती विलाप करने लगी... भाई विलाप करने लगे... अर्जुन पांडवों का बल था| आधार था, लेकिन जब अर्जुन ही न रहा तो जीने का क्या लाभ|
मां ने कहा, "बेटा, तुमने बीच मझदार में यह धोखा क्यों दिया? मां बच्चों के कंधों पर इस संसार से जाती है और तुम मुझसे पहले ही चले गए| यह हुआ कैसे? यह हुआ क्यों? जिसके सखा श्रीकृष्ण हों, जिसके सारथी श्रीकृष्ण हो, वह यों, निष्प्राण धरती पर नहीं लेट सकता... पर यह हो कैसे गया?"
देवी गंगा आई, कुंती को कहा, "रोने से क्या फायदा, अर्जुन को उसके कर्म का फल मिला है| जानती हो, अर्जुन ने मेरे पुत्र भीष्म का वध किया था, धोखे से| वह तो अर्जुन को अपना पुत्र मानता था, पुत्र का ही प्यार देता था| लेकिन अर्जुन ने शिखंडी की आड़ लेकर, मेरे पुत्र को बाणों की शैया पर सुला दिया था| क्यों? भीष्म ने तो अपने हथियार नीचे रख दिए थे| वह शिखंडी पर बाण नहीं चला सकता था| वह प्रतिज्ञाबद्ध था, लेकिन अर्जुन ने तब भी मेरे पुत्र की छाती को बाणों से छलनी किया| तुम्हें शायद याद नहीं, लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है... तब मैं भी बहुत रोई थी| अब अर्जुन का सिर धड़ से अलग है| बब्रुवाहन ने जिस बाण से अर्जुन का सिर धड़ से अलग किया है, वह कामाख्या देवी माध्यम से मैंने ही दिया था|
अर्जुन को परास्त कर पाना बब्रुवाहन के लिए कठिन था, आखिर उसने मेरे ही बाण का प्रयोग किया और मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया| अब क्यों रोती हो कुंती? अर्जुन ने मेरे पुत्र का वध किया था और अब उसी के पुत्र ने उसका वध किया है, अब रोने से क्या लाभ? जैसा उसने किया वैसा ही पाया| मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया|"
और प्रतिशोध शब्द भगवान श्रीकृष्ण ने सुन लिया... हैरान हुए... अर्जुन का सिर धड़ स अलग था और गंगा मैया, भीष्म की मां अर्जुन का सिर धड़ से अलग किए जाने को अपने प्रतिशोध की पूर्ति बता रही हैं... श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सके... एक नजर भर, अर्जुन के शरीर को, बुआ कुंती को, पांडु पुत्रों को देखा... बब्रुवाहन और चित्रांगदा को भी देखा... कहा, "गंगा मैया, आप किससे किससे प्रतिशोध की बात कर रही हैं? बुआ कुंती से... अर्जुन से, या फिर एक मां से? मां कभी मां से प्रतिशोध नहीं ले सकती| मां का हृदय एक समान होता है, अर्जुन की मां का हो या भीष्म की मां का... आपने किस मां प्रतिशोध लिया है?" गंगा ने कहा, "वासुदेव ! अर्जुन ने मेरे पुत्र का उस समय वध किया था, जब वह निहत्था था, क्या यह उचित था? मैंने भी अर्जुन का वध करा दिया उसी के पुत्र से... क्या मैंने गलत किया? मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ... यह एक मां का प्रतिशोध है|"
श्रीकृष्ण ने समझाया, "अर्जुन ने जिस स्थिति में भीष्म का वध किया, वह स्थिति भी तो पितामह ने ही अर्जुन को बताई थी, क्योंकि पितामह युद्ध में होते, तो अर्जुन की जीत असंभव थी... और युद्ध से हटने का मार्ग स्वयं पितामह ने ही बताया था, लेकिन यहां तो स्थिति और है| अर्जुन ने तो बब्रुवाहन के प्रहारों को रोका ही है, स्वयं प्रहार तो नहीं किया, उसे काटा तो नहीं, और यदि अर्जुन यह चाहता तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था... अर्जुन ने तो आपका मान बढ़ाया है, कामाख्या देवी द्वारा दिए गए आपके ही बाण का... प्रतिशोध लेकर आपने पितामह का, अपने पुत्र का भी भला नहीं किया|"
गंगा दुविधा में पड़ गई| श्रीकृष्ण के तर्कों का उसके पास जवान नहीं था| पूछा, "क्या करना चाहिए, जो होना था सो हो गया| आप ही मार्ग सुझाएं|"
श्रीकृष्ण ने कहा, "आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, उपाय तो किया ही जा सकता है, कोई रास्ता तो होता ही है| जो प्रतिज्ञा आपने की, वह पूरी हो गई| जो प्रतिज्ञा पूरी हो गई तो अब उसे वापस भी लिया जा सकता है, यदि आप चाहें तो क्या नहीं हो सकता? कोई रास्ता तो निकाला ही जा सकता है|"
गंगा की समझ में बात आ गई और मां गंगा ने अर्जुन का सिर धड़ से जोड़ने का मार्ग सुझा दिया| यह कृष्ण के तर्कों का कमाल था| जिस पर श्रीकृष्ण की कृपा हो, जिसने अपने आपको श्रीकृष्ण को सौंप रखा हो, अपनी चिंताएं सौंप दी हों, अपना जीवन सौंप दिया हो, अपना सर्वस्व सौंप दिया हो, उसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण बिना बुलाए चले आते हैं| द्वारिका से चलने पर दाऊ ने कहा था, 'कान्हा, अब अर्जुन और उसके पुत्र के बीच युद्ध है, कौरवों के साथ नहीं, फिर क्यों जा रहे हो?' तो कृष्ण ने कहा था, 'दाऊ, अर्जुन को पता नहीं कि वह जिससे युद्ध कर रहा है, वह उसका पुत्र है| इसलिए अनर्थ हो जाएगा| और मैं अर्जुन को अकेला नहीं छोड़ सकता|' भगवान और भक्त का नाता ही ऐसा है| दोनों में दूरी नहीं होती| और जब भक्त के प्राण संकट में हों, तो भगवान चुप नहीं बैठ सकते|
अर्जुन का सारा भाव हो, और कृष्ण दूर रहें, यह हो ही नहीं सकता| याद रखें, जिसे श्रीकृष्ण मारना चाहें, कोई बचा नहीं सकता और जिसे वह बचाना चाहें, उसे कोई मार नहीं सकता | अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं ही एक... नर और नारायण |
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