शिव द्वारा शुक्राचार्य को निगलना

देवाधिदेव महादेव
क्रोधित देवाधिदेव महादेव जी अंधक से युद्ध करने लगे परंतु दैत्येंद्र बहुत चालाक था। उसने गिल नामक दैत्य को आगे कर दिया। स्वयं उसने दैत्य सेना सहित गुफा के आस-पास के वृक्षों और लताओं को तोड़ दिया। तत्पश्चात उस दैत्य अंधक ने एक-एक करके सबको निगलना शुरू कर दिया। अंधक ने नंदीश्वर सहित ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सूर्य और चंद्रमा व समस्त देवताओं को निगल लिया। यह देखकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अंधक पर अपने तीक्ष्ण बाणों का प्रहार करना शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप दैत्यराज ने विष्णु सहित ब्रह्मा, सूर्य, चंद्रमा और अन्य देवताओं को वापस उगल दिया।
उधर, शिवगणों ने देखा कि दैत्यगुरु युद्ध में मारे गए राक्षसों को अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर रहे हैं। इसी कारण दैत्यों का मनोबल कम नहीं हो रहा है। तब शिवगणों ने चतुराई का परिचय देते हुए दैत्यगुरु शुक्राचार्य को बंधक बना लिया और उन्हें भगवान शिव के पास ले गए। जब शिवगणों ने यह बात भगवान शिव को बताई तो क्रोधित शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया । शुक्राचार्य के वहां से गायब हो जाने पर दैत्यों का मनोबल गिर गया और वे भयभीत हो गए। यह देखकर देवसेना ने उन दैत्यों को मार-मारकर व्याकुल कर दिया। इस प्रकार युद्ध और भीषण होता जा रहा था।
अंधक और देवाधिदेव महादेव के बीच युद्ध
दैत्यराज अंधक ने अब युद्ध को जीतने के लिए माया का सहारा लिया। भगवान शिव और अंधक के बीच सीधा युद्ध शुरू हो गया। भगवान शिव अपने प्रिय त्रिशूल से लड़ रहे थे । युद्ध करते-करते दैत्यराज के शरीर पर शिवजी जैसे ही त्रिशूल का प्रहार करते, उसके शरीर से निकले हुए रक्त से बहुत से दैत्य उत्पन्न हो जाते और युद्ध करने लगते। यह देखकर देवताओं ने देवी चण्डिका की स्तुति की, तब चण्डिका तुरंत युद्धभूमि में प्रकट हो गईं और उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया। शिवजी का आदेश पाकर देवी चण्डिका उस अंधक नामक असुर के शरीर से निकलने वाले रक्त को पीने लगीं। इस प्रकार अंधक का रक्त जमीन पर गिरना बंद हो गया और उससे उत्पन्न होने वाले राक्षस भी उत्पन्न होने बंद हो गए।
फिर भी अंधक अपनी पूरी शक्ति से युद्ध करता रहा। उसने भगवान शिव पर बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। युद्ध करते-करते भगवान शिव ने अंधक का संहार करने के लिए त्रिशूल का जोरदार प्रहार उसके हृदय पर किया और उसे भेद दिया। उन्होंने उसे ऐसे ही ऊपर उठा लिया। सूर्य की तेज किरणों ने उसके शरीर को जला दिया। इससे उसका शरीर जर्जर हो गया। मेघों से तेज जल बरसा और वह गीला हो गया। फिर हिमखण्डों ने उसे विदीर्ण कर दिया। इस पर भी दैत्यराज अंधक के प्राण नहीं निकले।
देवाधिदेव शिव की स्तुति
अपनी ऐसी अवस्था देखकर अंधक को बहुत दुख हुआ। वह हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव की स्तुति करने लगा। भगवान शिव तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। तब भला वे अंधक पर कैसे प्रसन्न न होते? उन्होंने अंधक को क्षमा करके अपना गण बना लिया। युद्ध समाप्त हो गया। सब देवता हर्षित होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भगवान शिव देवी पार्वती को साथ लेकर अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर चले गए। सभी देवता अपने-अपने लोकों को वापस लौट गए।
व्यास जी बोले ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! शिवगणों द्वारा जब शिवजी को यह ज्ञात हुआ कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य दैत्यों को पुनः जीवित कर रहे हैं और शिवगण उन्हें बंदी बना लाए हैं, तब क्रोधित होकर शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया था। तब आगे क्या हुआ? भगवान शिव के उदर में शुक्राचार्य ने क्या किया? क्या भगवान शिव ने उन्हें भस्म कर या फिर शुक्राचार्य अपने तॆज के प्रभाव से शिवजी के उदर से बाहर निकल आए ?
संजीवनी विद्या
व्यास जी के इन प्रश्नों को सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! भगवान शिव तो इस त्रिलोक के नाथ हैं। वे साक्षात ईश्वर हैं। उनकी आज्ञा के बिना इस संसार में कुछ भी नहीं होता। उनके कारण ही यह संसार चलता है। भगवान शिव के कारण ही देवताओं की हर युद्ध में जीत होती है। अंधक कोई साधारण दैत्य नहीं था। उसे यह बात ज्ञात थी कि वह त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नहीं जीत सकता। इसलिए वह अपने दैत्यकुल की रक्षा करने के लिए सर्वप्रथम अपने आराध्य दैत्यगुरु शुक्राचार्य के चरणों में गया और अपने गुरु की वंदना करने लगा। तब उन्होंने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया। दैत्यराज अंधक ने गुरु शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित करने की प्रार्थना की।
शुक्राचार्य ने अपने शिष्य अंधक की प्रार्थना स्वीकार कर ली और युद्धभूमि में आ गए। शुक्राचार्य ने भगवान विद्येश (शिव) का स्मरण कर अपनी विद्या का प्रयोग आरंभ किया। उस विद्या का प्रयोग करते ही युद्ध में मृत पड़े दैत्य अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर इस प्रकार उठ खड़े हुए मानो इतनी देर से सोए पड़े हों। यह देखकर दैत्य सेना में अद्भुत उत्साह का संचार हो गया। राक्षसों में नई जान आ गई और वे भगवान शिव के गणों से भयानक युद्ध करने लगे।
शुक्राचार्य का अपहरण
शिवगणों ने जाकर यह समाचार नंदीश्वर को बताया कि शुक्राचार्य अपनी विद्या के बल से मरे हुए दैत्यों को जीवित कर रहे हैं। यह जानकर नंदी सिंह की भांति दैत्य सेना पर टूट पड़े और उस स्थान पर जा पहुंचे जहां शुक्राचार्य बैठे थे। अनेकों दैत्य अपने गुरु की रक्षा करने के लिए चारों ओर खड़े थे। नंदी ने शुक्राचार्य को इस प्रकार पकड़ लिया जैसे शेर हाथी के बच्चे को पकड़ लेता है। वे उन्हें उठाकर तेज गति से वहां से निकल पड़े। नंदीश्वर को इस प्रकार अपने गुरु को उठाकर ले जाते देखकर सभी दैत्य उन पर टूट पड़े, परंतु नंदी अपनी वीरता का परिचय देते हुए सबको पछाड़ते हुए आगे बढ़ते रहे। नंदी के मुख से भयानक अग्नि वर्षा हो रही थी, जिससे दैत्य उनकी ओर नहीं बढ़ पा रहे थे।
इस प्रकार कुछ ही देर में नंदी शुक्राचार्य का अपहरण करके उन्हें भगवान शिव के सम्मुख ले आए। नंदी ने सारी बातें भगवान शिव को कह सुनाईं। यह सब सुनकर देवाधिदेव महादेव जी का क्रोध बहुत बढ़ गया और उन्होंने दैत्यगुरु शुक्राचार्य को अपने मुंह में रखकर इस प्रकार निगल लिया जिस प्रकार कोई बालक अपनी पसंदीदा खाने की वस्तु को पलभर में ही सटक जाता है।
शुक्राचार्य की मुक्ति
व्यास जी ने पूछा ;- हे सनत्कुमार जी ! शुक्राचार्य को जब भगवान शिव ने निगल लिया तब फिर क्या हुआ? यह प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! भगवान शिव ने क्रोधित होकर जब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को निगल लिया तब वे शिवजी के उदर में पहुंचकर वहां से बाहर निकलने के लिए बहुत चिंतित हो गए और अनेक प्रकार के प्रयत्न करने लगे। जब वे किसी भी प्रकार से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, तब उन्होंने भगवान शिव के शरीर में छिद्रों की खोज करनी शुरू कर दी परंतु सैकड़ों वर्षों तक भी उन्हें कोई ऐसा छिद्र नहीं मिल सका, जिससे वे बाहर आ जाते।
इस प्रकार शुक्राचार्य बाहर न निकल पाने के कारण बहुत दुखी हुए और उन्होंने शिवजी की आराधना करने का निश्चय किया। तब उन्होंने शिवमंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। शिव मंत्र का जाप करते-करते शुक्राचार्य शिवजी के शुक्राणुओं द्वारा उनके लिंग मार्ग से बाहर आ गए और हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने शुक्राचार्य को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया और मुस्कुराने लगे।
शिवजी बोले ;– हे भृगुनंदन! आप मेरे लिंग मार्ग से शुक्र की तरह बाहर निकले हैं इसलिए आज से आप शुक्र नाम से विख्यात होंगे। आज से तुम मेरे और पार्वती के पुत्र हुए और सदा संसार में अजर-अमर रहोगे। तुम्हें आज से मेरा परम भक्त माना जाएगा। तब शुक्राचार्य भगवान शिव की स्तुति करते हुए बोले ;- हे देवाधिदेव! भगवान शिव! आपके सिर, नेत्र, हाथ, पैर और भुजाएं अनंत हैं। आपकी मूर्तियों की गणना करना सर्वथा असंभव है। आपकी आठ मूर्तियां कही जाती हैं और आप अनंत मूर्ति भी हैं। आप देवताओं तथा दानवों सभी की मनोकामनाओं को अवश्य पूरा करते हैं। बुरे व्यक्ति का आप ही संहार करने वाले हैं। मैं आपके चरणों की स्तुति करता हूं। हे प्रभु! आप मुझ पर प्रसन्न हों।
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